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कविता

धूप तपी चट्टानों पर

जगदीश श्रीवास्तव


धूप तपी चट्टानों पर हम
नंगे पाँव चले।

बनजारे आवारा
बादल का विश्वास नहीं
रहे पीठ पर घर को लादे
हम इतिहास नहीं
मंजिल ही मंजिल को तरसे
मन की प्यास तले।

मन की टूटी दीवारों पर
इश्तहार टाँगे
गिरवी रखी जिंदगी से अब
कोई क्या माँगे ?
मेहनत का सूरज आँखों में
हर दिन शाम ढले।

दिन सूना हर शाम उदासी
रात अलावों पर
मौसम नमक छिड़क जाता है
मन के घावों पर
थका मुसाफिर घर को लौटे
सपने गए छले।


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